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शनिवार, 10 मई 2014

लालकिले से (भाग-96) - ब्रह्मराक्षस, तुलसीदास, संकटमोचन हनुमान मंदिर और काशी की कथा





बात तब की है जब गोस्वामी तुलसीदास मात्र तुलसी हुआ करते थे। रोज वन जाते और नित्यकर्म से निवृत होकर आते। वापसी में वे लोटे में बचा हुआ पानी नियमित रूप से एक पेड़ की जड़ों में डाल देते। महीनों से यह क्रम जारी था। उस पेड़ पर एक ब्रह्मराक्षथ रहता था। लगातार पानी मिलने से एक दिन वह प्रसन्न हो गया और तुलसी के सामने प्रकट हो गया। उसने कहा तुम महीनों से बिना स्वार्थ से इस पेड़ में पानी डालकर मुझे तृप्त करते रहे। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं, जो मांगना चाहते हो मांग लो मैं तुम्हारी सारी इच्छाएं पूरी कर दूंगा। तुलसी पहले तो ब्रह्मराक्षस से डरे और फिर कुछ संभलकर बोले कि - अगर तुम देना ही चाहते तो मुझे प्रभु राम से साक्षात्कार करवा दो।

तुलसी की बात सुनकर ब्रह्मराक्षस भी संकोच में पड़ गया और बोला कि- तुमने मुझसे जो मांगा है वह मेरी शक्ति और सामथ्र्य से बाहर है। अगर मैं इतना सामथ्र्यवान होता खुद उनके दर्शन कर मुक्ति पा लेता। लेकिन ब्रह्मराक्षस हंू मैं, तुम्हें खाली हाथ तो जाने नहीं दूंगा, इसलिए मैं तुम्हें प्रभु श्रीराम तक पहुंचने का मार्ग बतलाता हूं। ऐसा करो जहां भी प्रभु श्रीराम की कथा हो वहां जाओ और देखो कि वहां सबसे पहले कौन आता और सबके बाद कौन जाता है। उसे पहचान कर उसके पैर पकड़ लेना। वे कोई नहीं महावीर बजरंगबली हुनुमान होंगे। वेही तुम्हें भगवान राम से साक्षात्कार करवा सकते हैं। ब्रह्मराक्षस ने कहा कि विद्वान ब्राह्मण की भटकती आत्मा ब्रह्मराक्षस की योनि में प्रवेश कर जाती है। मैं भी इसी योनि में भटक रहा हूं। ब्राह्मण भले ही कि तनी ही कमतर योनि में क्यों न हो वह जगत के कल्याण का मार्ग अंतत: प्रशस्त कर ही देता है।

ब्रह्मराक्षस की बात सुनकर तुलसी वहां से चल दिए रामकथा स्थल की खोज में। खोज करते-करते काशी नगरी में पंहुच गए। एक स्थान पर राम कथा हो रही है। वे कथा स्थल पर कथा आरंभ होने से काफी पहले आ जाते और खत्म होने के बाद ही जाते। दो तीन तक यही क्रम जारी रहा। आखिरकार एक दिन उन्होंने ढंूढ ही लिया कि कंबल ओढ़े हुए एक बूढ़ा ब्राह्मण सबसे पहले आता है सबसे बाद में जाता है। एक दिन उसका पीछा किया, पर ब्राह्मण हाथ में नहीं आया, दूसरे दिन भी यही हुआ। तीसरे दिन आखिर वे उस ब्राह्मण के पास पंहुचने में सफल हो ही गए। पास पंहुचते ही उस ब्राह्मण के पैर से ऐसे लिपटे जैसे शहद से मुधमक्खी। और बोले प्रभु रामभक्त हनुमान मैंने आपको पहचान लिया है। मैं आपकी शरण में हूं। मेरा कल्याण करो। जब तक प्रभु हनुमान ने उन्हें उठाकर अपने गले नहीं लगा लिया तब तक वे प्रभु के पैरों में ही गिरे रहे।




ब्राह्मण वेशधारी हनुमानजी महाराज ने अंतत: उन्हें वानराधीश के रूप में दर्शन दिए और बोले भक्त मै तुमसे प्रसन्न हूं। क्या इच्छा है तुम्हारी। तब तुलसी बोले प्रभु मुझे अपने प्रभु राम का साक्षात्कार करवा दो। तब गंगा किनारे और शिव के त्रिशूल की नोंक पर बसी काशी नगरी में हनुमानजी ने तुलसी को भगवान रामचंद्र के दर्शन करवाए। रामजी ने तुलसी की भक्ति से प्रसन्न होकर अपने अवतरण की कथा खुद उन्हें अपने मुखारविंद से सुनाई। इसी कथा को लिखकर तुलसी तुलसीदास बनकर अमर हो गए। भगवान के मुख से निकले रामायण के शब्द महापातकनाशनं माने गए हैं। तुलसी को जिस स्थान पर भगवान हुनमान ने दर्शन दिए थे वह स्थान है काशी, वाणारसी या बनारस का
संकटमोचन हुनमान मंदिर।

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