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रविवार, 4 मई 2014

लालकिले से (भाग-88/2) - डोगराओं की बीस हजार बंदूकें छीनने और पंडितों की हत्या के बाद शुरू हुआ कश्मीर घाटी से पलायन का दौर

 


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न्यायमूर्ति नीलकंठ गंजू की हत्या से पृथकतावादियों ने शुरू किया था हिंसा का तांडव। इसके बाद बहन-बेटियों की इज्जत और अपनी जान बचाने के लिए घाटी से भागे 7 लाख कश्मीरी पंडित अभी तक अपने ही देश में शरणार्थी बनने का दंश झेलने को मजबूर हैं।
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पाकिस्तान से साथ तीन-तीन युद्ध हुए पर जम्मू-कश्मीर शंात रहा। लेकिन 1986 में राष्ट्रपति शासन के बाद जैसे ही फारूख अबदुल्ला दूसरी बार मुख्यमंत्री बने कश्मीर घाटी अशांत होने लगी। कश्मीरी पंडितों की हत्याओं का दौर आरंभ हो गया। अहसान दर ने 1989 में पृथकतावादी संबठन हिजबुल मुजाहिदीन का गठन किया । गठन से पहले ही इसने घाटी में हिंसा का तांडव आरंभ कर दिया था। दरअसल क श्मीर से पंडितों को भगाने की कोशिश तो शेख अबदुल्ला के समय 75 से ही आरंभ हो गई थी पर किसी को सफलता नही मिली। इस असफलता का एक मात्र कारण थे डोंगरा लड़ाके। आधे रिटायर्ड फौजी और बाकी किसान। सभी के बाद बंदूकें थी। लगभग बीस हजार लोगो के पास बंदूकें थी। इस बंदूकों की साये में कश्मीरी पंडित और अन्य हिन्दू वहां सुरक्षित थे। कश्मीर में अल्पसंख्यक होने के बाद भी डोंगरा लोगों के कारण यहां हिन्दूओं के खिलाफ कोई बोलने की हिम्मत नहीं करता था। 
पंडितों का भगाने की रणनीति के तहत फारूख अबदुल्ला ने डोगरा लोगों के हथियार कानून-व्यवस्था के नाम पर थाने मे जमा करवा लिए, इस आश्वासन के साथ कि ये हथियार कुछ ही दिनों में उन्हें वापस कर दिए जाएंगे। थानों से ये हथियार हिजबुल मुजाहिदनीन के लोगों से लूट लिए और पंडितों की हत्या आरंभ कर दी। 

न्यायमूर्ति नीलकंठ गंजू की हत्या से चला हत्याओं का दौर-------------------------------------------------------------------------------------------------------------
हत्याओं का दौर न्यायमूर्ति नीलकंठ गंजू की हत्या से हुआ। उन्होंने पृथकतावादी जम्मू कश्मीर लिब्रेशन फं्रट (जेकेएलएफ) के सह संस्थापक मकबूल बट्ट को फांसी की सजा सुनाई थी। बट्ट को भारतीय राजनयिक रवीन्द्र म्हात्रे की हत्या के मामले में 1984 में फांसी दे दी गई थी। इसके बाद दूरदर्शन महानिदेशक लासा कौल, प्रमुख संस्कृत विद्वान सरवन कौल प्रेमी, वकील प्रेम नाथ भट्ट की भी हत्या कर दी गई। समाजसेवी बालकिशन गंजू की घर में ही हत्या कर दी गई। इसके बाद शेरे कश्मीर मेडिकल इंस्टीट्यूट में एक नर्स सरला भट्ट का अपहरण, सामूहिक बलात्कार किया और फिर उसके विकृत शरीर को सडक़ पर फैंक देने की घटना ने सभी को दहलाकर रख दिया। इसके बाद पंडितों की बहू-बेटियों की इज्जर तार-तार की जाने लगी। लगभग 50 परिवारों का मार दिया गया। पंडितों की मदद करने वाले मुस्लिमों की भी हत्या की जाने लगी। कश्मीरी पंडितों और हिन्दुओं के लिए संकेत साफ था। इसके बाद रात के अंधेरे में पंडितों ने घाटी से जम्मू की ओर पलायन आरंभ किया। शरणार्थी शिविर की शुरूआत वहां से हुई। जैसे- जैसे संख्या बढ़ती गई वहां से दिल्ली और देश के अन्य शहरों और शरणार्थी शिविरों की ओर सफर आरंभ हुआ। कश्मीरी पंडित आज भी अपने ही देश में शरणार्थी बनने को मजबूर हैं। इसके बाद से अभी तक अपने पुरखों की धरती पर लौटना कश्मीरी पंडितों के लिए एक स्वप्न बना हुआ है।

रोम जल रहा था और नीरो बंशी बजा रहा था
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खैर फारूख अबदुल्ला कश्मीरी पंडितों के पलायन के लिए जनता दल के शासनकाल में राज्यपाल बने और बाद में भाजपा में शामिल हुए जगमोहन को जिम्मेदार मानते हैं। दरअसल जगमोहन के आने के पहले ही योजनाबध तरीके से हिंसा भडक़ाई गई। जगमोहन की सख्ती के कारण ही कश्मीर की स्थिति नियंत्रण में आई। बाद में सेकुलर लोगों के दबाव में जगमोहन को वहां से हटा दिया गया। लेकिन इस दौरान खुद फारूख अबदुल्ला लंदन जाकर बैठ गए। जब कांंस्टएबल नामक एक पत्रकार ने इंटरव्यू के दौरान उनसे इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं इसमें क्या कर सकता हूं, मैं तो गोल्फ खेलने में व्यस्त हूं।

कश्मीरी पंडितों की संपत्ति पर भी थी नजर
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कश्मीर में राजा हरिसिंह पंडितों का सम्मान करते थे। उन्होंने पंडितों को कई खेत, बगीचे और मकान दान में दिए थे। पीढिय़ों से चली आ रही इन संपत्तियों पर कई मुस्लिमों की नजर थी। मौका मिलते ही उन्होंने इन संपत्तियों पर कब्जा कर लिया और राज्य सरकार की मदद से मालिकाना हक के दस्तावेज भी बनवा लिए गए। 

क्योंकि कश्मीरी पंडित वोट बैंक नहीं है
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पंडितों की कश्मीर वापसी का मुद्दा भाजपा के अलावा और कोई दल नहंी उठाता। वाजपेयी सरकार ने भी इस दिशा में कोई खास कदम नहीं उठाए। सबसे हैरानी की बात है कि देश से पहले प्रधानमंत्री खुद कश्मीरी पंडित थे और उनके बाद उनकी बेटी इंदिरा गंाधी, नाती राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। अब पंडित नेहरू की नातीबहू सोनिया गांधी, उनके पडऩाती राहुल गांधी कांग्रेस में सत्ता से शीर्ष पर हैं पर इनके लिए कोई भी कुछ करने के लिए तैयार नहीं है। डर है कि कहीं मुस्लिम वोट बैंक नाराज न हो जाए। काश कश्मीरी पंडित भी वोट बैंक होते तो मुजफ्फरगनर के शिविरों की तरह प्रधानमंत्री और अन्य दलों के बड़े-बड़े नेता भी वहां जाकर उनके हक के लिए आवाज उठाते। काश कश्मीरी पंडित भी वोट बैंक होते।

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