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शनिवार, 10 मई 2014

लालकिले से (भाग-94) - नेहरू-गांधी और संघ परिवार में पहली बार आर-पार

1963 की गणतंत्र दिवस परेड में संघ के साढ़े तीन हजार स्वयंसेवकों ने बैंड के साथ राजपथ पर मार्च किया।
नेहरू-गांधी परिवार
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समझौता ब्लास्ट, मालेगांव ब्लास्ट और हिन्दू आंतकवाद के नाम पर संघ को घेरा जाने लगा। इससे संघ विचलित होने लगा था लेकिन उसने धैर्य बनाए रखा। इसके बाद जैसे ही कांग्रेस ने लक्षित सांप्रदायिक हिंसा बिल लाने का प्रयास किया संघ का धैर्य जवाब दे गया। संघ का मानना था कि यह बिल हिन्दुओं को अपने ही देश में कमजोर कर देगा। इसलिए उसने इस लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी को आगे किया है।
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देश की आजादी के बाद यह पहला मौका है जबकि संघ परिवार और नेहरू-गांधी परिवार में आर-पार की लड़ाई शुरू होग गई है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और पूर्व संघ प्रचार नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषणों में गांधी परिवार को जिस तरह से निशाने पर लिया है इससे पहले किसी ने नहीं लिया। दरअसल यूपीए की सरकार के आने के बाद केन्द्र सरकार जिस तरह से मुस्लिम तुष्टिकरण के एजेन्डे पर गई, हिन्दू आतंकवाद और लक्षित सांप्रदायिक हिंसा बिल लाने की तैयारी दिखाई उससे संघ को लग गया कि यह हिन्दुओं के हितों के खिलाफ है। इसलिए उसने नरेन्द्र मोदी को आगे कर अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया है और कांग्रेस भी इसी कोशिश में है कि भले ही एनडीए की सरकार बन जाए पर मोदी किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहिए।
गुरूजी
संघ और जनसंघ व्यक्तिगत हमलों से सदा बचे
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गांधीजी हत्या के बाद 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। कानूनी रूप से प्रतिबंध साबित नहीं किया जा सका और नेहरू सरकार को झुकना पड़ा। प्रतिबंध स्वत: ही वापस हो गया। समय बीतता गया संघ और नेहरू परिवार में एक समझ विकसित हो गई। इसके दो कारण थे। नेहरू और संघ के प्रमुख लोगों का ब्राह्मण होना और दूसरा कमला नेहरू के आध्यात्मिक गुरू के स्ंाघ प्रमुख माधव शदाशिव गोलवलकर गुरूजी से अच्छे संबंध। सजातीय होने और गुरू के संबंधों के कारण दोनों परिवार में एक आपसी समझ विकसित हो गई थी। इसी कारण संघ या उसके राजनीतिक संगठन जनसंघ के नेताओं ने कभी भी नेहरू-गांधी परिवार के खिलाफ विरोध में शिष्टता और सीमा का ध्यान रखा। विरोध मुद्दों का किया जाता था परिवार का नहीं। इस बीच भारत- चीन युद्ध छिड़ गया। इस दौरान संघ ने सिविल डिफेंस और घायल सैनिकों की मदद के लिए सेना का कंधे से कंधा मिलाया। इससे पं नेहरू प्रभावित हुए कि उन्होंने 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने के लिए संघ को भी आमंत्रण दे डाला। संघ के साढ़े तीन हजार स्वयंसेवकों ने बैंड के साथ राजपथ पर मार्च किया। इससे दोनों परिवारों में समझ और बढ़ी
राजीव गांधी और राव तक सब ठीक चला
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नेहरू के बाद इंदिरा गांधी ने भी इस समझ को बरकरार रखा और राजीव गांधी ने भी। आपातकाल के बाद हुए चुनाव में संघ ने इंदिरा की नीतियों का विरोध किया लेकिन वह उन पर व्यक्गित हमलों से बचता रहा। इसके बाद जनसंघ भी भाजपा में बदल गया। तब भी अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने इस शिष्टता की सीमा को बनाए रखा। जब मंडल के बाद समाज बिखराव की ओर था तो इस बिखराव को रोकने के लिए संघ ने १९९१ के लोकसभा चुनाव में गुप्त तौर पर कांग्रेस का साथ दिया। इसी कारण नरसिंहाराव की अल्पमत सरकार बनी और भाजपा के सार्थक सहयोग से पूरे पांच साल भी चली।
सोनिया के कमान संभालने के बाद रिश्तों में आई खटास
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सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने और खासकर 2004 में यूपीए सरकार बनने के बाद नेहरू-गांधी और संघ परिवार के संबंधों में खटास आनी शुरू हुई। इसका पहला कारण था कि सोनिया संबंधों की उस भावना को कभी नहीं समझ पाईं जिसकी कि नींव ब्राह्मणवाद के आधार पर रखी गई थी कारण कि वे आज भी ईसाई धर्म को मानती हैं। दूसरा कारण कि सोनिया के आने और अहमद पटेल के उनके राजनीतिक सचिव बनने के बाद कांग्रेस ईसाई और मुस्लिम तुष्टिकरण के हाई मोड पर चली गई। समझौता ब्लास्ट, मालेगांव ब्लास्ट और हिन्दू आंतकवाद के नाम पर संघ को घेरा जाने लगा। इससे संघ विचलित होने लगा था लेकिन उसने धैर्य बनाए रखा।

सांप्रदायिक हिंसा बिल से संघ का धैर्य टूट गया
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इसके बाद जैसे ही कांग्रेस ने लक्षित सांप्रदायिक हिंसा बिल लाने का प्रयास किया संघ का धैर्य जवाब दे गया। संघ का मानना था कि यह बिल एकतरफा हिन्दुओं को अपने ही देश में कमजोर कर मुस्लिमों और इसाईयों को इस देश में इतना ताकतवर बना देगा कि हिन्दु अपने ही देश में दूसरे दर्जे के नागरिक बन जाएंगे। तब संघ को लगा कि अगर अब भी चुप रहे तो हिन्दुओं के हितों की रक्षा करना मुश्किल हो जाएगा और संघ कमजोर होगा सो अलग। तब यह भी बात सामने आई कि अभी तक नेहरू-गांधी परिवार का खुला विरोध नहीं करने का संघ परिवार का फैसला सही नहीं था।
इसलिए नेहरू-गांधी परिवार पर मोदी ने किया टार्गेट
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इसलिए संघ ने नरेन्द्र मोदी को भाजपा में घोर विरोध के बाद भी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनवाया। संघ के वर्तमान प्रमुख मोहन भागवत और नरेन्द्र मोदी संघ में साथ-साथ ही आए थे। दोनों की आपसी समझ बेहतर है। इसीके साथ संघ ने मोदी के मार्फत नेहरू-गांधी परिवार को निशाना बनाना शुरू किया। सरदार पटेल का मुद्दा उठाकर नेहरू का कद छोटा करने का प्रयार किया। आपातकाल के नाम पर इंदिरा गांधी को घेरा। सोनिया और राहुल गांधी को तो नरेन्द्र मोदी ने खुलकर निशाने पर ले रखा है। सोनिया गांधी को भी लग गया था कि कि नेहरू-गांधी परिवार की राजनीति गद्दी को सबसे बड़ी चुनौती मोदी ने ही दी है और उनके एजेंडे की राह में सबसे बड़ी बाधा नरेन्द्र मोदी हैं। इसी कारण पिछले पांच सालों से मोदी को टार्गेट किया जा रहा है। मोदी ने भी चुनावी सभाओं में गांधी-नेहरू परिवार को जितना निशाने पर लिया है आज से पहले कभी नहीं लिया। खैर संघ के लिए यह कड़े इंतिहान की घड़ी है। अभी नहीं तो कभी
नहीं।

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