कांग्रेस की हार की प्रसव पीड़ा से ही हमेशा तीसरे मोरचे का जन्म हुआ है। कांग्रेस जब-जब हारी है उसने गैर कांग्रेस और गैर भाजपावाद के नाम पर तीसरे मोर्चे की सरकार बनवाई है, वो भी अपने समर्थन से। इतिहास गवाह है कि कांग्रेस ने तीसरे मोर्चे को समर्थन देने और समर्थन वापसी के खेल में अब तक 8 प्रधानमंत्री बनाए और 4 बार लोकसभा के मध्यावधि चुनाव करवाए। इस बार कांग्रेस को पहले से ही अहसास हो गया है कि उसे सत्ता तो मिलनी नहीं है। भाजपा को भी सत्ता नहीं मिले इसलिए वह राग तीसरा मोर्चा छेडक़र मोदी और भाजपा को रोकने की रणनीति पर काम कर रही है। तीसरा मोर्चे के नेता मंगलवार को कह रहे थे कि वे गैर कांग्रेसी और गैर भाजपा सरकार बनाएंगे। जबकि हकीकत है कि तीसरा मोर्चा कांग्रेस की मानस संतान की तरह ही है। कांग्रेस के समर्थन की बैशाखी के बगैर वह चल ही नहीं सकता। इतिहास गवाह है कि जब-जब तीसरा मोर्चा बना है मध्यावधि चुनाव हुए हैं। इसके बाद कांग्रेस यह कहकर सत्ता में आ जाती है कि दूसरे दलों को सरकार चलाना नहीं आता, केवल कांग्रेस ही स्थित सरकार दे सकती है। वाजपेयी सरकार को छोड़ दें तो कोई भी गैर कांग्रेसी सरकार अभी तक अपना कार्यकाल तक पूरा नहीं कर पाई।
तीसरा मोर्चा यानी एक साल में एक प्रधानमंत्री
देश को आजाद हुए 66 साल हो चुके हैं। इसमें कांग्रेस ने 53 साल और गैर कांग्रेसी दलों में 13 साल राज किया। इन 13 में से भी सवा 6 साल भाजपा के अटलबिहारी वाजपेयी ने राज किया। बाकी के 6 सालों में कांग्रेस ने मोराराजी देसाई (1979), चौधरी चरणसिंह(1980), वीपी ंिसहं(1990), चंद्रशेखर (1991), अटलबिहारी वाजपेयी(1996), एचडी देवेगौड़ा (1997), इंद्रकुमार गुजराल (1998)और अटलबिहारी वाजपेयी(1999)की सरकार गिराईं। अगर 1990 से 1999 के 9 सालों को देखें तो कांग्रेस ने तीसरे मोरचे को समर्थन देकर तीसरे मोरचे के तीन प्रधानमंत्री (चंद्रशेखर, देवेगौडा और गुजराल), बनवाए और तीसरे मोरचे के समर्थन से दो बार वाजपेयी की एनडीए सरकार गिरवाई। अगर इसमें चरणसिंह की सरकार को जोड़ दें तो कांग्रेस के समर्थन से बनने वाले प्रधानमंत्रियों की संख्या 4 हो जाती है। कांग्रेस ने चरणसिंह की मदद से मोरारजी देसाई की सरकार गिरवाई थी। इस तरह कांग्रेस ने तीसरे मोरचे की मदद से गैर कांगे्रसी सरकारों का अपदस्त कर चार बार लोकसभा के मध्यावधि चुनाव करवाए हैं। सिर्फ वीपी सिंह सरकार को गिराने में कांग्रेस के साथ भाजपा भी जिम्मेदार थी। इस गेम प्लान में कांग्रेस को एक बार ही 1999 में मुंह की खानी पड़ी। एक वोट से अटलजी की सरकार गिरने के बाद हुए उप चुनाव में अटलजी की अगुवाई में एनडीए को पूर्ण बहुमत मिला था।यानी सत्ता पाने के लिए कांग्रेस ने सदैव जनता को केजरी टोपी पहनाई है। कभी भी किसी गैर कांग्रेसी सरकार को कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया गया। वाजपेयी को छोडकऱ कोई भी गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। वाजपेयी भी तीसरी पारी में अपना कार्यकाल पूरा कर पाए। इससे पहले तो 13 दिन और फिर दो साल में ही कांग्रेस ने तीसरे मोरचे की मदद से सरकार गिरवा दी। कार्यकाल को छोड़ो पूरे 365 दिन भी गद्दी पर नहीं बैठ पाया। कांग्रेस का समर्थन चरणसिंह को 170 दिन,चंद्रशेखर को 223 देवेगौड़ा को 324 और गुजराल को 332 दिन रहा। गैर भाजपा सरकारों में कांग्रेस ने मोरारजी देसाई की सरकार को 2 साल 126 दिन, वीपी सिंह को 343 दिन और पहली बार की वाजपेयी सरकार को 16 दिनों में और दूसरी बार बनी बाजपेयी सरकार को 272 दिनों में एक वोट से गिरवा दिया था। कांग्रेस ने तीसरे मोरचे सरकारों में कोई न कोई चरणसिंह, चंद्रशेखर, देवेगौेड़ा या गुजराल को हमेशा ही खोजे रखा ताकि समय आने पर काम आ सके। इसी तरह भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस सांप्रदायिकता का शस्त्र चलाकर तीसरे मोरचे को काम में लेती रही है।
इस बार तो तीसरे मोर्च में जितने बराती उतने ही दूल्हे वाली बात है। गांव बसा नहीं और मांगने वाले आ गए की तर्ज पर अभी से प्रधानमंत्री पद के लिए दाव-पेंच शुरू हो गई है। जयलतिता ने तो खुद को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार ही नहीं प्रधानमंत्री भी घोषित कर दिया। आज चेन्नई में जयललिता को प्रधानमंत्री दिखाता हुआ एक पोस्टर लगा है जिसमें दुनिया के दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्ष अम्मा के सामने झुकते दिखाई देते हैं। दूसरे यूपी वाले नेताजी खुद को तीसरे मोर्चे से प्रधानमंत्री का प्रत्याशी मान रहे थे। मुलायम इस दांव में थे कि चुनाव के पहले तीसरा मोर्चा उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दे ताकि यूपी में अच्छी सीटें मिल सकें। मंगलवाल को दिल्ली में हुई तीसरे मोर्चे की बैठक के पहले नीतिश कुमार मुलायमसिंह के घर गए और उन्हें मनाया कि नेता कौन होगा इसका फैसला चुनाव परिणाम के बाद करेंगे। अभी से तीसरे मोरेचे की संभावनाएं समाप्त मत करो। खुद नीतिश भी प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं इसलिए उन्होंने मुलायम का नाम फिलहाल टलवाकर अपनी संभावनाएं भी जीवित रखीं । पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा की तो स्वम्भू दावेदारी है ही। शरद यादव की भी अपनी राजनीति महत्वाकांक्षाएं हैं।
अगर मान भी लें कि तीसरे मोरचे की सरकार की नौबत आती है ता वह ममता बनर्जी, मायावती और शरद पंवार के बगैर नहीं बनेेगी। ये तीनों खुद भी प्रधानमंत्री पद की दावेदार हैं। चूंकि एआईडीएमके तीसरे मोर्चे में है इसलिए द्रमुक अब किसी भी सूरत में इस गंठबंधन में नहीं आएगा। यानी वे या तो एनडीए के साथ जाएंगे या फिर विपक्ष में बैठेंगे। चंद्राबाबू का एनडीए प्रेम जगजाहिर है ही। जगन मोहन रेड़्डी और तेलंगाना राष्ट्रसमिति वाले तो जिधर दम उधर हम की रणनीति पर चल रहे हैं।
असम गण परिषद के प्रफुल्ल मंहत और बीजेडी के नवीन पटनायक भी आज की बैठक में नहीं आकर अपने प्रतिनिधियों को भेजा, जयललिता ने भी ऐसा ही किया। इसका एक संदेश यह भी है कि चुनाव बाद अगर तीसरे मोरचे की संभावना नहीं हो तो एनडीए में शामिल होने के लिए एक रास्ता तो होना ही चाहिए। तीसरे मोरचे की खिचड़ी तभी पकेगी जब कांग्रेस सवा सौ के आस-पास आए और एनडीए दौ सौ के आस-पास । लेकिन इसका तो मतलब यही है कि कांग्रेस अपने विरोध में गए वोट को भी कितनी चतुराई से अपने पक्ष में ले आती है। इसी को कहते हैं राजनीति। इसलिए नमो कि यह बात सही प्रतीत होती है कि अगर अपने कांग्रेस विरोधी वोट एनडीए के अलाव किसी को भी दिया तो वह पीछे के रास्ते से कांग्रेस के पास ही पहुंच जाएगा।
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