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शुक्रवार, 28 मार्च 2014

लालकिले से (भाग-39) - जसवंतसिंह कैच वसुंधरा बोल्ड मोदी





@@@ऐसे किया आउट- जसवंतसिंह कैच वसुंधरा बोल्ड मोदी@@@इसलिए किया आउट- कांधार हाईजैक और जिन्हा कांड से नाराज संघ ने अंतत: जसवंत को आउट कर ही दिया

शनिवार को फौजी को टीवी स्क्रीन पर एक अदद टिकट के लिए रोते हुए देखा। इससे पहले भी शिमला में फूट-फूट कर रोए थे। १९ अगस्त २००९ को भाजपा की चिंतन बैठक के बाद। वही जिन्हा प्रकरण, वही किताब। उन्होंने अपनी किताब जिन्हा- इंडिया पार्टीशन इंडिपेन्डेस में देश के विभाजन के लिए प. जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल को जवाबदार ठहराया था। इस के बाद मोदी ने उनकी पुस्तक पर गुजरात में प्रतिबंध लगा दिया तो भाजपा ने उन्हें पार्टी निकाला दे दिया था। फिर आडवाणी की मदद से पार्टी में आए तो इस बार लगता है वाड़मेर प्रेम उन्हें ले डूबेगा। दरअसल जसवन्तसिंह का टिकट काटने के पीछे नरेन्द्र मोदी, अरूण जेटली, वसुंधरा राजे और संघ की मिली जुली कुश्ती है। इसलिए मौका मिलते ही उनको उनका कद बता दिया गया। सुषमा स्वराज ने इस संबंध में कहा था कि चुनाव समिति की बैठक में नहंी उसके बाद जसवंत का टिकट कटा है। यानी इनता बड़ा फैसला संघ की राजमंदी के बगैर नहीं हो सकता।


एनडीए सरकार में आरएसएस को अलग-थलग किया

अटलजी की वाजपेयी सरकार में जसवंतसिंह गृहमंत्री आडवाणी के बाद तीसरे नंबर के नेता थे। उन्हें अपने मंत्रिमंडल में लेने के लिए वाजपेयी को खासी मशक्कत करनी पड़ी थी। कारण कि संघ नहीं चाहता था कि उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल किया जाए। मंत्रिमंडल में शामिल होने के बाद जसवंत अटलजी के संकटमोचक बन गए। उन्होंने भी अटलजी और संघ के रिश्तों में खटास लाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। कंधार हाईजैक कांड में में मौलाजा मसूद सहित भारतीय जेलों में बंद आतंकियों को छोडऩे के फैसले में जसवंत की भूमिका खासी महत्वपूर्ण थी। इससे भी संघ उनके खासा नाराज था। रही सही कसर जिन्हा विवाद में आडवाणी का साथ देने से पूरी हो गई।

हार का ठीकरा जेटली के सर फोडऩा चाहते थे 


दरअसल २००९ के लोकसभा चुनाव की हार के बाद उन्होंने इसका ठीकरा अरूण जेटली की ओर फोडऩे की कोशिश की। यह आडवाणी को बचाने की एक कोशिश थी। कारण कि उस चुनाव लालकृृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का कैडिंडेड घोषित किया गया था। जसवंत का गणित था वे राज्यसभा में विपक्ष का नेता पद हथिया ले लेकिन इस पद पर अरूण जेटली की ताजपोशी हो गई।

राजस्थान में सिमटता जनाधार

२००४ में एनडीए की हार के बाद वे पार्टी मे अपनी पकड़ नही बना पाए। पहले भैरोसिंह शेखावत के अच्छे संबंधों के कारण वे पार्टी में विवादों के बावजूद बचे रहे। कारण कि भैरोसिंह के सभी से अच्छे संबंध थे इसलिए उनकी बात हर कोई मान लेता था। भैरौसिंह की तरह वे भी कभी भी संघ की गुडबुक में नहीं रहे। इसी कारण उन्हें पिछला लोकसभा चुनाव दार्जीलिंग से लडऩा पड़ा था और जीते। इस बार बंगाल में ममता इफैक्ट के कारण उन्होंने वहां से चुनाव नहीं लडऩे का फैसला किया और बाड़मेर के लिए लाबिंग करना आरंभ कर दी।

जसवंत का जनाधार और मोदी-वसुन्धरा की जुगलबंदी

भैरोसिंह शेखावत के अवसान और खराब स्वास्थ्य के कारण अलटजी के सक्रिय राजनीति से दूर होने के बाद जसवंतंिसंह ने आडवाणी का हाथ थाम लिया। पार्टी से बाहर होने के बाद भी आडवाणी के प्रयासों से ही उनकी भाजपा में वापसी हुर्ह थी। इस बार से विधानसभा चुनाव में मोदी की मदद से वसुन्धरा ने राजस्थान में एतिहासिक जीत हासिल की। वसुन्धरा ने इस जीत में मोदी लहर को जितना श्रेय दिया उनता मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में डा. रमनसिंह ने नहीं दिया। जब लोकसभा चुनाव की बात सामने आई तो जसवंतसिंह को जोधपुर से टिकट मिल सकता था लेकिन जोधपुर राजघराने से संबंधों के चलते उन्होंने वहां से मना कर दिया और बाड़मेर से लडऩे इच्छा जताई। वसुन्धरा ने यह कहकर उनका टिकट कटवा दिया कि उन्हें एक सीट पर जीत चाहिए या फिर सारी सीटों पर। उन्होंने मोदी, जेटली और संघ की मदद से जसवंत का टिकट काट दिया। वे नहीं चाहती थीं कि राज्य में कोई दूसरा शक्ति केन्द्र बने।

जाटों का नाराज नहीं करना चाहती है भाजपा

दरअसल भाजपा वाड़मेर में जाट कार्ड खेल रही है। कर्नल सोनाराम कांग्रेस से आयातित हैं और उन्हें भाजपा ने यहां से टिकट दिया है। मुजफफरनगर दंगों के बाद यूपी, हरियाणा और राजस्थान का जाट भाजपा के पक्ष में लामबंद होता दिख रहा था लेकिन कांग्रेस ने चुनाव से ऐन पहले जाटों को केन्द्रीय आरक्षण सूची में रखकर उन्हें अपनी ओर करने की कोशिश की है। इससे जाटों के कुछ वोट कांग्रेस और अजीतसिंह के राष्ट्रीय लोकदल की ओर जा सकते हैं। वैसे भाजपा के एक धड़े का कहना है कि जाटों को आरक्षण तो अटलबिहारी वाजपेयी ने दिया था इसलिए इसका कोई खास असर नहीं होना है फिर भी एक बड़े जाट नेता को लाकर भाजपा ने तीनों राज्यों के जाटों को संदेश देने की कोशिश की है। नाथूराम मिर्धा के बाद कर्नल सोनाराम जाट समाज के बड़े नेताओं में से एक माने जाते हैं। दूसरा अब भाजपा चाहकर भी सोनाराम की जगह जसवंतसिंह को टिकट नहीं दे सकती। कारण कि ऐसा करने से जाटों में गलत संदेश जाएगा।

मोदी और वसुन्धरा की जुगलबंदी

दरअसल संघ का भी फरमाद है कि उम्रदराज लोगों को या तो राज्यसभा में भेजो या घर बैठने के लिए कहो। आडवाणी नहीं माने, जोशी नहीं माने, जसवंत नहीं माने ता फजीहत हुई और यशवंतसिन्हा मान गए तो उनके स्थान पर उनके बेटे को हजारीबार से टिकट मिल गया। अगर क्रिकेट के भाषा में कहें तो जसवंतसिंह मोदी की गेंद पर आउट हुए, कैच किया वसुन्धरा ने।

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